
*बिहार की राजनीति में स्वर्णो का वर्चस्व आज भी है बरकरार,सवर्णो की कृपा से चमकती रही भाजपा की राजनीति,
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मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद से मुख्यधारा की राजनीति में दूसरे पायदान पर रह रहीं सवर्ण जातियां अब विमर्श के केंद्र में आ रही हैं। सभी बड़े राजनीतिक दल उन्हें रिझाने की कोशिश कर रहे हैं। 1990 के बाद के दौर में भाजपा सवर्ण वोट बैंक पर अपना एकाधिकार मानने लगी थी। सहयोगी जदयू से भी सवर्णों को कभी एतराज नहीं हुआ, लेकिन 32 साल बाद कई चीजें बदल रही हैं।

राजद के रुख में बदलाव सबसे बड़ी चीज

बड़ा बदलाव यह आया है कि पिछड़ों, अनुसूचित जातियों और अल्पसंख्यकों की हिमायत करने वाला राजद भी सवर्णों को अपनाने के लिए हर जतन कर रहा है। विधान परिषद की 24 सीटों पर हुए चुनाव में राजद के भूमिहार बिरादरी के उम्मीदवारों ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की। पांच में से तीन जीते। हालांकि, ऐसी ही सफलता राजद के राजपूत बिरादरी के उम्मीदवारों को नहीं मिली। बोचहां विधानसभा उप चुनाव की जीत के बाद राजद के भीतर यह विचार होने लगा कि थोड़ी कोशिश हो तो सवर्ण भी उससे अलग नहीं रहेंगे।
भाजपा ने राजपूतों को साधने की कोशिश की
भाजपा ने स्वतंत्रता सेनानी बाबू वीर कुंवर सिंह विजयोत्सव पर बड़ा समारोह आयोजित किया। समारोह में एक साथ लाखों लोग तिरंगा लेकर शामिल हुए। यह उत्सव गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज हुआ है। कुंवर सिंह के विजयोत्सव पर हर साल 23 अप्रैल को विजयोत्सव मनाया जाता है। लेकिन, इतना भव्य आयोजन इससे पहले कभी नहीं हुआ। भाजपा की सक्रियता को इस निष्कर्ष से जोड़ा गया कि वह क्षत्रियों के बीच अपनी पैठ और मजबूत करना चाहती है।
बाबा परशुराम की जयंती
बाबा परशुराम की जयंती हर साल अक्षय तृतीया को मनाई जाती है। इस बार का आयोजन खास तौर पर हुआ। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह ऊर्फ ललन सिंह मोकामा में आयोजित बड़े समारोह में शामिल हुए। विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने पटना में आयोजित समारोह को संबोधित किया। दोनों समारोहों में भूमिहार और ब्राह्म्ण जाति के लोगों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। ललन सिंह ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के योगदान की चर्चा की।
तेजस्वी को चाहिए परशुराम के वंशजों का साथ
उधर तेजस्वी ने दावा किया कि परशुराम के वंशज साथ दें तो उन्हें सत्ता में आने से कोई रोक नहीं सकता है। लक्ष्य एक ही था-किस तरह सवर्ण की इन दो प्रमुख जातियों को अपनी ओर आकर्षित करें। यह भी गौर करने की बात है कि परशुराम जयंती के कई आयोजन में ब्राह्मण और भूमिहार समाज के लोग एक साथ शामिल हुए। भाजपा याद दिला रही है कि राजद शासन काल में सवर्णों पर कितने तरह के जुल्म ढाए गए।
बोचहां का असर है यह
सवर्णों को जोड़ने या उन्हें अपने साथ जोड़े रखने को लेकर राजनीतिक दलों की बेचैनी को बोचहां विधानसभा उप चुनाव के परिणाम से जोड़ कर देखा जा रहा है। आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि बोचहां में सवर्णों और खास कर भूमिहारों ने भाजपा का साथ नहीं दिया। भाजपा की हार हो गई। इससे पहले स्थानीय प्राधिकार के विधान परिषद चुनाव में भी भाजपा के उम्मीदवारों को इस समाज के वोटरों की नाराजगी का सामना करना पड़ा था। भूमिहार बहुल कई सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों की हार हुई।
क्यों जरूरी है इनका साथ
बिहार की राजनीति के केंद्र में सवर्णो की भूमिका इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि मंडल के नाम पर 1990 में हुई पिछड़ों, अनुसूचित जाति और अल्पसंख्यकों की गोलबंदी पहले जैसे नहीं रह गई है। 1995 में ये सब लालू प्रसाद के साथ थे। उसके बाद अत्यंत पिछड़ी जातियां स्वतंत्र अस्तित्व की खोज में अलग हो गईं। नीतीश कुमार उनके नए नायक बने। अनुसूचित जातियों में पासवान ने लोजपा का साथ दिया।
अल्पसंख्यक राजद के साथ
अन्य जातियां अलग-अलग दलों से प्रतिबद्ध हैं। अल्पसंख्यक मोटे तौर पर अब राजद के साथ हैं, लेकिन 2005 और 2010 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने जदयू का भी साथ दिया था। यह स्थिति सवर्ण वोटरों को यह अवसर दे रही है कि वह मंडल या कमंडल की राजनीतिक धारा की किसी एक पार्टी को साथ देकर चुनावी परिदृश्य को बदल दे।
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