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उत्तर भारत की आस्था और श्रद्धा के पारम्परिक पर्व बना महापर्व, इसकी गूंज पहुंची सात समंदर पार

ByAdmin Office

Oct 30, 2022

यह महापर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। हालाँकि इन प्रदेशों के लोग दिल्ली, मुंबई या जहाँ कहीं भी बाहर रहते हैं, साथ इकट्ठे होकर अवश्य मनाते हैं। चूँकि इन्हीं प्रदेशों के लोग सबसे अधिक संख्या में बाहर रहते हैं, तो हर प्रदेश में इस पूजा की झलक देखी जा सकती है। अब तो इसकी गूँज सात समंदर पार के देशों तक में भी सुनाई देने लगी है।

इस महापर्व की अद्भुत सुंदरता और पवित्रता का ही असर है कि अब अन्य प्रदेशों के भी कई सारे लोग इसे हर साल मनाने और मनाने में सहयोग करने लगे हैं।

इस महापर्व की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हम बाकी त्योहारों के लिए ‘पर्व’, जबकि छठ-पूजा के लिए ‘महापर्व’ शब्द का संबोधन करते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि शेष पर्वों के प्रति हमारे श्रद्धा और उत्साह में जरा-सी भी कोई कमी होती है। दूसरे, जॉब, पढ़ाई या किसी भी कारण से बाहर रहनेवाले लोग यथासंभव कोशिश करते हैं कि इन दिनों वे छुट्टी लेकर अपने-अपने घरों पर जरूर आएं । पूरे साल में वापस आनेवाले यात्रियों से ट्रेन, बस आदि सबसे ज्यादा इन्हीं दौरान भरी रहती हैं। कई पर्यावरणविदों का भी दावा है कि पर्यावरण के सबसे अनुकूल हिंदू त्योहार महापर्व छठ-पूजा ही है।

चूँकि इसे हर साल दिवाली के छठे दिन अर्थात कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के षष्ठी तिथि को मनाते हैं, इसलिए भी इसे ‘सूर्य षष्ठी व्रत’, ‘डाला छठ’ या ‘छठ-पूजा’ कहते हैं। कई लोग तो चैत्र महीने में शुक्ल षष्ठी तिथि को भी मनाते हैं, लेकिन यह अधिकतर वही लोग मनाते हैं जिनकी कोई विशेष मन्नत पूरी हुई होती है। वैसे तो महिलाएँ ही व्रती होती हैं, लेकिन अब कई पुरुष भी यह व्रत करने लगे हैं।

हम लोग इसे ‘महापर्व’ यूँ ही नहीं कहते हैं, बल्कि यह वाकई सबसे कठिन व्रत है। इनके विधि-विधान लगातार चार दिनों तक चलते हैं। कार्तिक शुक्ल की चतुर्थी से लेकर सप्तमी तिथि तक। पहले दिन यानी कि चतुर्थी को ‘नहाय-खाय’ का रिवाज है। इस दिन सारी व्रती नहाकर-शुद्ध होकर, साफ-धुले हुए कपड़े पहनकर और प्रार्थना करके ही भोजन करती हैं। भोजन में मुख्यतः चने की दाल, लौकी की सब्जी और भात (चावल) ही होते हैं। हर घर में सभी व्रतियों के भोजन ग्रहण करने के बाद ही बाकी सदस्य भोजन करते हैं।

अगले दिन को ‘खरना’ कहते हैं। इस दिन सभी व्रती पूरे दिन निर्जला रहकर शाम को चावल-गुड़ से बनी खीर और रोटी ग्रहण करती हैं। इसके बाद से लेकर षष्ठी के पूरे २४ घँटे और सप्तमी को पारण करने से पहले तक, मतलब, लगातार ३५-३६ घँटों तक निर्जला रहती हैं।

सबसे मुख्य दिन अर्थात षष्ठी को ठेकुआ-खस्ता जैसे और भी प्रसाद बनाए जाते हैं। दिन के ३-४ बजे से पूजा-घाटों पर कई तरह के फल-प्रसादों से भरे हुए टोकरी-डाला लेकर हर घर के सारे लोग इकट्ठे होते हैं, और शाम को तालाब या पानी से भरे बने गड्ढों में उतरकर सूरज डूबने की पहली किरण को देखते हुए दूध या जल से अर्ध्य देते हैं। ध्यान देने योग्य है कि इतने व्यापक पैमाने पर डूबते हुए सूर्य देवता की उपासना शायद इसी एक व्रत में की जाती है। घाटों से वापस आकर २४ गन्नों को आपस में बांधकर गोलाई में खड़ा कर देते हैं, और उनके अंदर गोलाई में ही हर तरह के प्रसाद व विशेष सामग्रियों से भरे मिट्टी के ढक्कनों को रख देते हैं। इस प्रक्रिया को ‘कोशी भरना’ कहते हैं। तब पास में बैठकर घर और अगल-बगल की महिलाएँ छठी मईया की गीत गाती हैं। लगभग आधे-एक घँटे के बाद सभी सदस्य प्रार्थना करने के बाद सभी सामग्रियों को वापस पूजन-गृह में रख देते हैं। तदुपरांत, रात को ३-४ बजे से यही सिलसिला फिर से शुरू हो जाता है। मतलब, सारे लोग घाटों पर इकट्ठे होते हैं। तब तक व्रतियों के लिए जागरण का ही विधान है। अंतर केवल यह होता है कि अब घरों के बजाय घाटों पर २४ गन्नों व ढक्कनों वाली प्रक्रिया अपनाते हैं, और डूबते हुए सूरज के बजाय उगते हुए सूरज की पहली किरण को अर्ध्य देते हैं। इसके बाद घाटों पर ही एक-दूसरे को प्रसाद देकर, व्रतियों के चरण स्पर्श करके सभी अपने घरों को लौटते हैं, और व्रती प्रसाद खाकर ही व्रत खोलते हैं। तब पारण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।

अगर विज्ञान या व्यावहारिक भाषा में कहूँ, तो जगत को रोशनी, ऊर्जा, ताकत आदि देने वाले सूरज के प्रति अपना आभार प्रकट करते हैं। अगर धार्मिक-दृष्टिकोण से कहूँ, तो सूर्य देवता व उनकी बहन छठी मईया के प्रति अपनी श्रद्धा-प्रेम को प्रकट करते हैं, और उनसे आशीर्वाद के रूप में शांति, समृद्धि या कोई भी मनोवांछित फल पाने के लिए इसे मनाते हैं।

कहते हैं कि भगवान राम जब माता सीता से स्वयंवर करके घर लौटे थे और उनका राज्याभिषेक किया गया था, तब उन्होंने पूरे विधि-विधान के साथ कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को परिवार के साथ पूजा की थी। एक मान्यता के अनुसार लंका पर विजय प्राप्‍त करने के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी भगवान राम और माता सीता ने व्रत किया था और सूर्यदेव की आराधना की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय फिर से अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था। एक मान्यता यह भी है कि एक बार पांडव जुए में अपना सारा राज-पाट हार गए। तब पांडवों को देखकर द्रौपदी ने छठ का व्रत किया था। इस व्रत के बाद दौपद्री की सभी मनोकामनाएँ पूरी हुई थीं। तभी से इस व्रत को करने की प्रथा चली आ रही है। कुछ और भी मान्यताएँ हैं।

कल ‘नहाय-खाय’ से पहला दिन शुरू हो चुका है। आज ‘खरना’ है। सभी व्रतियों को महापर्व छठ-पूजा की सपरिवार ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ। छठी मईया आप सभी का कल्याण करें। जय हो छठी माई की! जय हो सूर्य देवता की !


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