
झारखण्ड का कोयला नगरी धनबाद 24 अक्टूबर 2025 को अपने अस्तित्व के 69 वर्ष पूरे कर चुका है। 1956 में बंगाल के मानभूम जिले से काटकर बना यह जिला, कभी औद्योगिक रोजगार देने वाला शहर कहा जाता था। लेकिन सात दशक बाद भी यह सवाल कायम है—क्या देश की “कोयला राजधानी” अपनी ऊर्जा-संपदा का लाभ खुद उठा पाई?
*कोयले से रोशनी पूरे देश में, पर खुद अंधेरे में*

धनबाद का कोयला वर्षों से देश की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करता आया है। बिहार, बंगाल, झारखण्ड और उत्तर प्रदेश तक की बिजली इसी भूमि के गर्भ से निकलने वाले कोयले से जलती है। लेकिन विडंबना यह है कि जिस शहर से बिजली देशभर में जाती है, वही शहर आज भी बिजली संकट से जूझता है।

गर्मी के दिनों में 8–10 घंटे की बिजली कटौती आम बात है। निर्बाध विद्युत आपूर्ति का सपना आज भी अधूरा है। कोयले की प्रचुरता के बावजूद ऊर्जा वितरण की अव्यवस्था प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी का आईना दिखाती है।
*उद्योगों का पतन और बढ़ती बेरोजगारी*
धनबाद की पहचान कभी कोल इंडस्ट्रीज और रोजगार के अवसरों से थी। देशभर के मजदूर और तकनीकी कर्मी यहां काम की तलाश में आते थे। परंतु पिछले दो दशकों में कोयला-आधारित उद्योग लगातार बंद होते गए।
सिंदरी का उर्वरक कारखाना, सीएमपीडीआई जैसे संस्थान, और दर्जनों निजी औद्योगिक इकाइयाँ क्रमशः बंद होती गईं। परिणामस्वरूप बेरोजगारी चरम पर है, और युवा वर्ग पलायन को मजबूर है।
सरकार द्वारा हाल ही में सिंदरी में हिंदुस्तान उर्वरक लिमिटेड (हर्ल) के पुनर्जीवित कारखाने और मैथन में पावर लिमिटेड प्लांट की शुरुआत जरूर एक उम्मीद जगाती है। लेकिन जब तक स्थानीय युवाओं को यहाँ रोजगार नहीं मिलेगा, विकास के आंकड़े कागज़ों तक ही सीमित रहेंगे।
*यातायात और जाम की विकराल समस्या*
आबादी और वाहनों की संख्या ने बीते 70 वर्षों में कई गुना वृद्धि दर्ज की है। मगर सड़कों का विस्तार नहीं हो सका। 10 गुना बढ़े वाहनों के अनुपात में सड़कों की चौड़ाई जस की तस रही, जिससे जाम की स्थिति भयावह बन गई है।
राष्ट्रीय राजमार्ग से लेकर शहर के केंद्रीय हिस्सों तक लोग रोज़ घंटों जाम में फँसे रहते हैं। बैंकमोड़ से लेकर रांची बस स्टैंड तक की दूरी तय करने में कभी-कभी 40 मिनट लग जाते हैं।
फ्लाईओवरों की बात करें तो बैंकमोड़ का पुराना फ्लाईओवर सात दशक में शहर की एकमात्र बड़ी राहत रहा। मटकुरिया-आरा मोड़ फ्लाईओवर, जिसकी लागत 153 करोड़ है, हाल ही में शुरू हुआ है, लेकिन पूरा होने में अब भी दो वर्ष लग सकते हैं।
पूजा टॉकीज-बैंकमोड़ फ्लाईओवर की मांग 40 साल पुरानी है, जो अब भी ठंडे बस्ते में है। गया पुल चौड़ीकरण की फाइल भी वर्षों से शासन-प्रशासन के बीच घूम रही है।
*अधूरी शहरी सुविधाएँ और जल संकट*
धनबाद का शहरी ढांचा आबादी के अनुपात में विकसित नहीं हो सका। नगर निगम क्षेत्र में 55 वार्ड हैं, परंतु साफ सफाई, पेयजल, सीवरेज और ट्रैफिक प्रबंधन जैसी मूलभूत सेवाएँ आज भी अधूरी हैं।
हालांकि 700 करोड़ की शहरी जलापूर्ति योजना पर कार्य जारी है, पर जल संकट अभी भी शहर के हर मोहल्ले में महसूस होता है। कई इलाकों में लोग टैंकरों और निजी बोरिंगों पर निर्भर हैं।
*पर्यावरणीय क्षरण और खनन की मार*
धनबाद न केवल औद्योगिक बल्कि पर्यावरणीय दृष्टि से भी गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है।
अवैध खनन, भूमिगत आग, और भूधंसाव जैसी घटनाएँ यहाँ की नियति बन चुकी हैं। झरिया क्षेत्र में भूगर्भीय आग अब भी कई बस्तियों को असुरक्षित बना रही है। प्रदूषण का स्तर राष्ट्रीय मानकों से ऊपर है और यह बच्चों तथा वृद्धों के स्वास्थ्य पर गहरा असर डाल रहा है।
69 वर्षों की उपलब्धियाँ
सकारात्मक पहलुओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। धनबाद की कुछ हालिया उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं:
400 करोड़ की आठ लेन सड़क का निर्माण, जिससे शहर को बाहरी संपर्क बेहतर हुआ है।
*मटकुरिया-आरा मोड़ फ्लाईओवर परियोजना प्रगति पर है।*
*मैथन पावर लिमिटेड प्लांट से ऊर्जा उत्पादन में योगदान बढ़ा है।*
*सिंदरी में हर्ल कारखाने का पुनः उद्घाटन, औद्योगिक रोजगार की आशा जगाता है।*
*700 करोड़ की शहरी जल योजना पर तेजी से कार्य चल रहा है।*
*इन पहलों से यह उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले वर्षों में शहर बेहतर आधारभूत संरचना हासिल करेगा।*
राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी
धनबाद के विकास की कहानी मुख्य रूप से प्रशासनिक और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी का परिणाम रही है।
चाहे वह नगर नियोजन हो, ट्रैफिक प्रबंधन या पर्यावरण संरक्षण—हर क्षेत्र में योजनाएँ बनीं, पर लागू नहीं हुईं।
स्थानीय जनप्रतिनिधियों के बीच समन्वय और दीर्घकालिक दृष्टि की कमी ने शहर को पिछड़ेपन के दलदल में धकेल दिया।
पूर्व सांसदों और विधायकों ने समय-समय पर सड़क, फ्लाईओवर और जलापूर्ति जैसी योजनाओं की नींव रखी, लेकिन अधिकांश परियोजनाएँ आधी-अधूरी रह गईं। इससे नागरिकों के बीच यह विश्वास कमजोर हुआ कि “धनबाद भी एक दिन रांची या जमशेदपुर की तरह आधुनिक बन सकेगा।”
*भविष्य की राह*
धनबाद का भविष्य उसके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
विकास का एजेंडा अब केवल उद्योगों या सड़कों का नहीं हो सकता, बल्कि एक समग्र शहरी पुनर्गठन की आवश्यकता है—जहाँ पर्यावरण, ऊर्जा, रोजगार और जीवन-गुणवत्ता का संतुलन हो।
नई परियोजनाओं को तीव्र गति से पूरा करना, स्थानीय युवाओं को तकनीकी प्रशिक्षण देना, और कोयला कर (Cess) से मिलने वाले राजस्व को शहर के मूलभूत ढाँचे में लगाना इस दिशा में अहम कदम होंगे।
*विडंबना*
विडंबना है कि 69 वर्ष का धनबाद आज भी अपने ही संसाधनों के बीच उपेक्षित महसूस करता है। कोयले की भूमि पर जन्मा यह शहर भारत को ऊर्जा तो देता है, पर खुद उजाला तरसता है।
यह विडंबना नहीं, बल्कि विकास नीति के असंतुलन का प्रतीक है।
अब समय है कि “कोयला नगरी” अपने ही लोगों के जीवन में आशा की रोशनी जलाए—सिर्फ बिजली के तारों में नहीं, बल्कि विकास की हर धारा में।
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